आगरा में देवोत्थान एकादशी पर तुलसी शालिग्राम विवाह की परंपरा वर्षों से चली आ रही है।देवोत्थान एकादशी पर श्री मनकामेश्वर मंदिर में भगवान शालिग्राम संग माता तुलसी परिणय सूत्र में बंधी। रावतपाड़ा स्थित श्री मनकामेश्वर मंदिर में तुलसी शालिग्राम विवाह वैद
कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकादशी कहते हैं। इस दिन 4 महीने के विश्राम के बाद भगवान नारायण जागते हैं। इस मौके पर तुलसी शालिग्राम शोभायात्रा धूमधाम से निकाली गई। फूलों से दुल्हन की तरह सजीं तुलसी महारानी को मंदिर के महंत योगेश पुरी ने अपने शीश पर उठाया। फूलों से सजी बग्घी पर भगवान शालिग्राम दूल्हे के रूप में बिराजे। तुलसी महारानी और भगवान शालिग्राम का श्रृंगार भक्तों के मन को मोह लेने वाला था। यात्रा में आगे आगे गणपति के प्रतीक स्वरूप हाथी तो पीछे-पीछे ढोल ताशा बैंड बाजा संग श्रद्धालु नाचते गाते हुए चल रहे थे। पहले बारात की सभी रस्में पूरी की गईं। वैदिक मंत्रोच्चार के साथ भगवान शालिग्राम और माता तुलसी का पूजन कर आरती उतारी गई। भक्तों ने जमकर आतिशबाजी की। श्रद्धालुओं ने भगवान के रथ पर फूल बरसाए।
वैदिक मंत्रोच्चार से हुआ पाणिग्रहण संस्कार
देवोत्थान एकादशी के अवसर पर प्राचीन मनकामेश्वर मंदिर में भव्य सजावट की गई। तुलसी महारानी और शालिग्राम भगवान को मंडप में विराजमान कराया गया। पुरोहित ने विधि विधान से पांणिग्रहण संस्कार करवाया। भक्तों ने कन्यादान की सभी रस्में निभाई। फिर फेरे कराए गए। राजेश -अंजू अग्रवाल, रोहित -सोनिया गर्ग, राहुल नीलिमा गुप्ता आदि भक्तों ने भगवान शालिग्राम की शिला को उठाया और तुलसी महारानी के पौधे को हाथों में लेकर फेरे लिए।
सदियों पुरानी है परंपरा
महंत योगेश पुरी और मठ प्रशासक हरिहरपुरी ने बताया कि वृंदा ने भगवान नारायण को श्राप दिया था कि वह पत्थर के बन जाएं। तभी से भगवान शालिग्राम के रूप में परिवर्तित हो गए। इसके बाद जब लक्ष्मी जी को पता चला कि नारायण शिला के रूप में हो गए हैं। भगवान विष्णु ने कहा कि उनकी शिला के ऊपर जब तक जड़ वृंदा रानी यानी तुलसी का पत्ता नहीं अर्पित किया जाएग। तब तक उनको अर्पित किया भोग स्वीकार नहीं होगा। उन्होंने शालिग्राम रूप में देवोत्थान एकादशी के दिन महारानी तुलसी से विवाह किया। तभी से यह परंपरा ब्रज के मंदिरों में निभाई जा रही है।